Monday 11 April 2011

सुबहे बनारस

सुबहे बनारस
खामोश गंगा की लहर से ,
भावनाओ के भवंर से ,
उगते सूरज की किरणों से
लाल रंग की लालिमा , स्वयं में समेटे लहू की कालिमा ,
रक्त -रंजित करती मंदिर की सीढियों को ,
काल-कलवित करती सदियों और पीढियों को ,
कोमल भावनाओ की पंखुडियो को कुचल डाला ,
हाय क्या कर डाला मंगल शाम की काली छाया ने,
क्या कोमल भावनाए इतनी काल्पनिक है ,
क्या श्रधा की डोर इतनी नाजुक है ,
इन्सान रोने लगा है ,
इंसानियत खोने लगा है !
लहू आज पानी है , नई नहीं ये कहानी है ,
बात सदियों पुरानी है ,
इन्सान को इन्सान मारता है ,
क्या हुआ शिव तेरे शहर को ,
क्या हुआ उस सुबह को ,
जिसे हम सुबहे -बनारस कहते थे !
जिसमे योगी रत -दिन जीते थे !
यह कविता बनारस में आठ दिसम्बर दो हजार दस की काली मंगल शाम पर उकेरी गई एक कोशिश है !
अरविन्द भारद्वाज *योगी

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