Monday 11 April 2011

निःशब्द चुपचाप

निःशब्द चुपचाप

एक आवाज आती है
सन्नाटे से निःशब्द चुपचाप
शायद कुछ कहना चाहती है
चांदनी रात चुपचाप
वक़्त गुजरता जाये चुपचाप
क्या कर सकते हो आप
सुबह से शाम
और शाम से फिर रात आये चुपचाप
दर्द की काली घटा
छा जाये चुपचाप
आसमान शबनम टपकाए
अवनि से चुपचाप
दर्द की तन्हाई में
कटती हर रात चुपचाप
सुनहला सुबह लाये
नए स्वप्न अपने साथ
चले योगी जिंदगी के साथ
चले जैसे ज़िन्दगी चुपचाप !
यह कविता क्यों ? सन्नाटा भी स्वयं एक एक आवाज है ज़िन्दगी की धुन पे बजने वाला मधुर साज है !
अरविन्द योगी 

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