Saturday 23 July 2011

बड़ा ही मनभावन है बनारस का सावन

बारिश के बूंदों में डूबा मन
चन्दन से शीतल हुआ तन
शिवमय हो बहती चंचल पवन
भावनामय हो जलती हवन
धन्य हो जाये जहाँ जीवन
धन्य हो जाये जहाँ मरण
आज सावन आया है
उस बनाराश की शरण !

बारिश की बूंदों में डूबता कण-कण
योगी बन काशी में घूमता तन-मन
गंगा की लहर भाव की भंवर
उगते सूरज का शहर ,मंदिरों का नगर
आज बादलों की जद में है, सावन की हद में है
जहाँ सूरज भी डूबता है चाँद भी उगता है
ह्रदय से हँसता हर मन दिखता है
जहाँ हर भाव दिखता है बिकता है
भावना की हर रात में भक्ति की हर बात में
सावन में जब बनारस डूबता है !
जिसे सृष्टि का कण कण पूजता है
ऐसा है मन भावन बनारस का सावन !

पंक्ति में खड़ी भक्ति है जिसमे शिव शक्ति है
मस्ती में डूबी हर बस्ती है भावना भी सस्ती है
चली फिर आज सावन की कश्ती है
सस्ती से सस्ती है मस्ती से मस्ती है
शिव को समर्पित सावन की भक्ति है
शक्ति को अर्पित सावन की मस्ती है
आज उगते सूरज के शहर में
आज सावन की मस्ती है !

यह कविता क्यों ? बड़ा ही मनभावन है बनारस का सावन जहाँ कण कण शिवमय हो जाता है रसमय हो जाता है शाशिमय हो जाता है सब रसमय हो जाता है जब बनारस में सावन आता है !
अरविन्द योगी

हे प्रभो तुम कहाँ हो ?

हे प्रभो ! तुम कहाँ हो ?
जहाँ देखो तुम वहां हो
मन में हो तन में हो
सृष्टि के कण कण में हो
मै अकिंचन जित खोजा
तित पाया तुमको
रोम रोम में धरा व्योम में
बेचारा चंचल सा मन
खोजता रहा हर जनम
करता रहा हर करम
तुझे पाने की तुझमे सामने की
पर तुम मेरे अंतर्मन में हो
सृष्टि के जन-जन में हो
पर बांवरा सा मेरा मन
तेरा अस्तित्व अनंत
खोजता है योगी सोचता है
तुम कहाँ हो? तुम कहाँ हो?
जहाँ तक दृष्टि पड़ती
तुम वहां हो फिर भी
हे प्रभो तुम कहाँ हो ?

यह कविता क्यों ? चंचल मन अंतर्मन में कल्पनाओं के पंख लगाकर अनंत सृष्टि में कौतुक दृष्टि से जिस ईश्वर की खोज यात्रा करता है सृष्टि के कण कण में है जीवन में है पर मन तो मन है न पूछ ही बैठता है की आखिर दुनिया की नाव चलने वाले नाविक प्रभो! तुम कहाँ हो ?
अरविन्द योगी