Monday 28 March 2011

जी रहे है लोग कैसे

जी रहे है लोग कैसे
जी रहे है लोग कैसे
आज के वातावरण में
सभ्यता की मांग सुनी
कोयले सर धुन रही है
बैठ कौवों की शरण में
घोर कलयुग है की दोनों
राम रावन एक से है
लक्ष्म्नो का हाँथ रहता
आजकल सीता हरण में
शब्द निरर्थक बन चुके है
अर्थ घोर अन्रर्थ करते
संधि कम विग्रह अधिक है
जिंदगी के व्याकरण में
झांकता है क्यों अँधेरा
सूर्य की पहली किरण में !
जी रहे है लोग कैसे
आज के वातावरण में !

             यह कविता क्यों ? आज जीवन का अर्थ ही निरर्थक बन गया है हर जगह विग्रह फैला हुआ है !
अरविन्द योगी

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