Saturday 26 March 2011

रिस्तो के रंग

रिस्तो के रंग
ज़िन्दगी के कैनवाश पर
हमने एक चित्र खीचा था
चित्र खीचा था एक नीली सी झील का
चित्र खीचा था मादक समीर का
चित्र खीचा था रिस्तो की जंजीर का
चित्र खीचा था उम्मीदों की तस्वीर का
एक प्यारी सी परी का
दर्द भरी दोपहरी का
कुलांच भरती हिरणी का
और इस झील में
मै जी भर नहाया था
हंसा मुस्कराया था
रुई से बर्फीले पथ पर
ज़िन्दगी के हर पग पर
नहीं फिसले मेरे पग
पर सूरज की सात घोड़ो के
तेज टापों ने
छितरा छितरा डाला मेरा रंगीन कैनवाश
थकी हारी नजरो से जब मैंने
कैनवाश को टटोला
तो सभी रंग गायब थे
गहरे से रिस्तो के
मन के फरिस्तो के
मै विवश हो सोचा
क्या रिस्तो के रंग इतने कच्चे थे ?
जो सह ना सके
सूरज की तेज धुप को
रिश्ते नाते सभी अन्तरंग
है सिर्फ कच्चे रंग
जो ख़ुशी के उजाले में चमकते है
पर गम के बरसात में धुल जाते है
योगी जीवन हम कहाँ जाते है
क्यों इन रिस्तो में खो जाते है?

यह कविता क्यों ? रिस्तो में इन्सान खुद को खो देता है जबकि रिश्ते सिर्फ कर्तव्य और फर्ज है बाकि कुछ भी नहीं कुछ है तो वो आप है सो अपने आप को खुद भी एक पहचान दे ज़िन्दगी खुल के जिए !
अरविन्द योगी @

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