Saturday 23 July 2011

हे प्रभो तुम कहाँ हो ?

हे प्रभो ! तुम कहाँ हो ?
जहाँ देखो तुम वहां हो
मन में हो तन में हो
सृष्टि के कण कण में हो
मै अकिंचन जित खोजा
तित पाया तुमको
रोम रोम में धरा व्योम में
बेचारा चंचल सा मन
खोजता रहा हर जनम
करता रहा हर करम
तुझे पाने की तुझमे सामने की
पर तुम मेरे अंतर्मन में हो
सृष्टि के जन-जन में हो
पर बांवरा सा मेरा मन
तेरा अस्तित्व अनंत
खोजता है योगी सोचता है
तुम कहाँ हो? तुम कहाँ हो?
जहाँ तक दृष्टि पड़ती
तुम वहां हो फिर भी
हे प्रभो तुम कहाँ हो ?

यह कविता क्यों ? चंचल मन अंतर्मन में कल्पनाओं के पंख लगाकर अनंत सृष्टि में कौतुक दृष्टि से जिस ईश्वर की खोज यात्रा करता है सृष्टि के कण कण में है जीवन में है पर मन तो मन है न पूछ ही बैठता है की आखिर दुनिया की नाव चलने वाले नाविक प्रभो! तुम कहाँ हो ?
अरविन्द योगी

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