Saturday 18 June 2011

श्रद्धा के आंसू

श्रद्धा के आंसू

श्रद्धा के आंसू बन गए जिग्यांसु
पवित्र थें विचित्र थें
अनंत बहाव था लगाव था
अनोखी धार बन प्यार
बरस रही थी तड़प रही थी
एहसासों के बादल
बन गएँ आँखों के काजल
भावना पवित्र थी
ज़िन्दगी सचित्र थी
अर्पण नहीं समर्पण की बेला थी!
ईस्वर की सब खेला थी
कल आज और कल
ज़िन्दगी का हर पल
जीने की अब बारी थी
ह्रदय से निकली वो प्रायश्चित हमारी थी
जीकर देखा श्रद्धा के आंसू को
कितने पवित्र कितने सच्चे
दिल से भोले बड़े अच्छे
बरस पड़ते थे एहसासों में घिरकर
उमड़ उमड़ कर घुमड़ घुमड़ कर
प्यार में अधिकार में
वो श्रद्धा के आंसू थे !
बह जाये तो भी उनके ना बहे तो भी उनके
कितनी ज़िन्दगी छिपी थी उन आंसुओं में
प्यार की भावना बही थी उन आंसुओं में
श्रद्धा के आंसू
हैवान को भगवान और
सैतान को इन्सान बनाती है
गर बरस जाये ह्रदय से
तो इन्सान को इन्सान बनाती है
योगी मन यही तो प्रायश्चित कहलाती है
जो श्रद्धा के आंसू बन ज़िन्दगी बहाती है!

यह कविता क्यों ? ह्रदय की वेदनाओं से पवित्र हो प्रायश्चित में जो आंसू मन के आँखों से निकलते हैं वो इन्सान को उसके इन्सान होने का एहसास दिला देते है और एक नई राह दिखाते है ! अरविन्द योगी

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